कुछ कही कुछ अनकही
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कहाँ आज़ाद हैं हम ?
कहाँ आजाद हैं हम तुम
सवालों से जवाबों से
मिलते रहे जख्म बारहा
अजीजों से बेगानों से
परेशां हैं किस कदर हम
हकीकत से फसानों से
उम्र बीत गई यूँ ही
सच्चे झूठे सहारों से
अजब सा खौफ है छाया
ज़मीं को क्यों सितारों से
नापते आज भी खुदको
क्यों पुराने पैमानों से
कटेगी जिंदगी कैसे
फिर उन्ही झूठे बहानों से
खुश होते हम भी शायद
ले लेते गर सीख कुछ सयानों से
सफ़ीनों से भी किनारों से भी
बेजार हुए अब तो नज़ारों से
सरोज सिंह
९/०५/२०१७
मेलबोर्न
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