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वो जो नज़रों में समाये बैठे हैं
हमसे ही नज़रे चुराए बैठे हैं
राहों में आँख बिछाये बैठे है
आस का दीपक जलाये वैठे हैं
है एतमाद तुझी पर हम को तो बस
हम तो तुझसे लौ लगाये वैठे है
ले के हम तो बस अपने आँचल में
माँ की हम हज़ारों ही दुआयें बैठे हैं
हर धर्म ने दिए पैगाम फ़क़त प्यार के
हम क्यों नफ़रत फैलाये बैठे है
अच्छे वक्त की उम्मीद में ही हम तुम
कितने अरमान सजाये बैठे हैं
वो इक आंगन जो था साँझा सबका
उसमें दीवार बनाये बैठे हैं
पाठ सभी को अमन का देने वाले
गीता का ज्ञान भुलाये बैठे हैं
खुशियों के तो कोई आसार नही
हाँ गम कबसे मगर आये बैठे है
हैं चिराग ये अब शायद बुझने वाले
क्यों ये अपनी लौ बढ़ाये वैठे है
कौन हुआ है अपना अपनों के सिवा
राज ये दिलको समझाए बैठे है
रहती है फलक पर नजरें तो हमारी
हाँ ज़मी पर पैर जमाये बैठे है
अब है क्या जो न मिलता हो बाज़ार में
हर शै का मोल लगा ये बैठे हैं
यादें हैं कुछ कुछ तन्हाईयाँ भी
प्यार में हम ये सिला पाये बैठे हैं
कुछ दर्द भरे अफसानों का यारब
हम इक दीवान लिखाये बैठे है
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(c )सरोज सिंह
१ मई २०१७
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