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चुप हैं दीवारें

कुछ कही कुछ अनकही
कुछ कही कुछ अनकही
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चुप हैं दीवारें

छुपाये अपने अंदर वो सब
हैं गवाह जिसकी
वो सब
जो
है न देख पाता कोई
न सुन पाता कोई
और न कर पाता महसूस कोई
दीवारें चुप हैं
वो बोलती नहीं
शायद अच्छा ही है
बोलती अगर दीवारें
बेपर्दा हो गए होते
घर घर के राज़ कई
तार तार हो गए होते रिश्ते कई
बरसों से छिपी रिश्तों की सच्चाई
दुनिया जान गई होती
जतन से लाई गई थी
चेहरों पे जो मुस्कानें
छिपे है कितने शिकवे ,आंसू ,तन्हाई ,और उदासी
उन के पीछे
उठ जाता पर्दा हर राज़ से
इसीलिये तो
घर घर की पर्दादार हैं दीवारें
नहीं अहसास हैं हमें
कितनी जिम्मेदार हैं दीवारें

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