कुछ कही कुछ अनकही
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ग़ ज़ल
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बरसे जब बरखा तो क्या करते
भीग न जाते हम तो क्या करते
बिन खिड़की बिन दरवाजों का था
मिल भी जाता वो घर क्या करते
मसले हर दिन के उलझाते जो
उलझे ही रहते तो क्या करते
यादों की गलियो में जा कर भी
बीतें लम्हों का हम क्या करते
थक गए थे हम मंजिल से पहले
साथ न देते तुम तो क्या करते
पाठ वफ़ा का न पढ़ा पाये हम
दागे- दिल दिखला कर क्या करते
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