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बीते पलों का उधार ……..

कुछ कही कुछ अनकही
कुछ कही कुछ अनकही
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बीते पलों का उधार
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कितना अच्छा होता
गर
फिर से जीने को मिल जाते
कुछ बीते पल जीवन के
शायद कुछ उधार चुकता हो जाता
जो बेगाने से बन कर जिए थे
वो कुछ पल भी अपने हो जाते
कितना अच्छा ………….
गर ….
जी कर देखते खुद की खातिर
वो पल जो औरों को सौंप दिए थे
पूरी कर लेते कुछ ख्वाहिशें वो अपनी
रह गई छुपी जो दिल के दरीचों में कहीं
कितना अच्छा ……
गर ……
पूरा कर लेते उन खतों को
जो लिखे ही नहीं
कर लेते कुछ गुफ़्तगु उन चाँद सितारों से
थे गवाह जो उदास सी मेरी तन्हाइयों के
कितना अच्छा …….
गर …….
उन सुरमई शामों से पूछ लेते वो राज़
छिपे रह गए जो हवाओं की सरगोशियों में कहीं
चल कर देखें तो सही वो तितली वो जुगनू
आज भी क्या उस चमन में यूँ ही उड़ते फिरते हैं
कितना अच्छा ………
गर……..
वो चांदनी रात फिर इक बार मिल जाती
जब कहकशाओं से फरिश्तों ने नूर बरसाया था
क्या पता वो साया आज भी
मेरे इंतजार में हो ,जिसे मैं छोड़ आया था
कितना अच्छा …
गर …
हो जाती फिर एक मुलाकात
समंदर की उन लहरों से
जो मेरी राज़दार थी
छूकर जिनको चेहरे पे मेरे
जाने कितने रंग आये थे
कितना अच्छा ……..
गर …..
वो पल फिर मिलजाते जब
फैला पंखों को अपने
आसमां की लम्बी सैर को
बस यूँ निकल जाता था मन
और धनक का झूला झूल कर
खिल खिल कर हम जमीं पर
सतरंगी सी खिलखिलाहटें बिखेर देते थे
कितना अच्छा ……
गर …..
कुछ बीते हुए पल
फिर से
बस एक बार फिर से मिल जाते ………
बस एक बार ………

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