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न शाम के माथे पे पशेमानी ………….

कुछ कही कुछ अनकही
कुछ कही कुछ अनकही
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न शाम के माथे पे पशेमानी ……………………….

यह समंदर का किनारा
यह लहरें ऊंचीं नीचीं सी
यह हवाई बौराई सी
दुनिया यह अनजानी सी
शहरों , गावों , सड़कों ,बाज़ारों से दूर
यह नज़ारा यह सुकून भरा
न धुआं हैं न कोई शोर
न सुबह का हंगामा है
न शाम की परेशानी
न सुबह है किसी जल्दी में
न शाम के माथे पे पशेमानी
दूर वो समंदर से आसमान मिल रहा यूँ
बिछड़े हुए से दो दोस्त हों जैसे
और ख़ामोशी जैसे
बयान कर रही है
कोई अनसुना अफ़साना
अल्फ़ाज़ यहां बेमानी हैं
बोलती हैं यहां बस लहरें
गुनगुनाती हैं बस हवाएँ
अपने ही अंदाज़ में
और यह लहरें
बढ़ी जा रहीं बेसब्र यूँ
किनारों की ओर
मिल ही जाएगी जैसे आज
इनको मंजिल जिंदगी की
सुर्ख सुरमई सी सुबहो -शाम
आसमां से उतरती
दूर कहीं
क्षितिज पार
अपनी ही परछाइयों से बतियाती सी
जाने कब
स्याह रात में ढल जाती ……….

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