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कहाँ है तू ऐ अब्रे -मेहरबां……..

कुछ कही कुछ अनकही
कुछ कही कुछ अनकही
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कहाँ है तू ऐ अब्रे- मेहरबां
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आँखों में मेरी,कुछ सपने सुनहरे
कुछ सपनों के बस साये ही हैं /
दिल में मेरे कुछ दर्द ,कुछ राज़ अपने
कुछ दर्द पराये भी हैं /
बिखरा हुआ सा वज़ूद ले कर
दरबदर भटक रहा हूँ /
मंजिल मेरी ,थे तो किनारे ही
अभी मगर मैं, ज़रा
दरिया का मिज़ाज़ आज़मां रहा हूँ /
रूह को सुकून क्यों हासिल नहीं होता
यही वो एक सवाल है जवाब जिसका
कभी हासिल नहीं होता /
कहाँ है तू ऐ अब्रे -मेहरबां
कभी तो इधर का गुज़र करता जा /
सदियों से जलते हुए
सेहरा के नसीब को
अब तो बदलता जा /
तपती हुई चमन की ज़मीं पर
हो के मेहरबाँ आज तो तू बरसता जा /

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