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गीत कोई लखना जो चाहा इक दिन मैंने
गीत कोई लिखना जो चाहा इक दिन मैंने
तैर गई आँखों में तस्वीरें कितनी ..
छिपे थे कितने रंग अनेकों ..
कहकशायें थी ,टूटे हए कुछ सितारे थे ….
बहारों की दास्ताँ थी …
गाते गुनगुनाते परिंदों की सरगम थी ….
फूलों की महक भी थी ..
हवाओं की सरगोशियाँ थी ..
बदलियों के आने की आहट थी ..
था इक इंद्रधनुष सतरंगी भी दूर क्षितिज पर ….
सपनों की ऊंची ऊंची सी परवाज़ें थी ….
कुछ मौन स्वरों का आलाप भी था …
छिपा हुआ सा कहीं कोई इक नेह का आह्वान भी था ..
माँ के आँचल का सुहाना साया था …
बाबू जी के प्यार का असीम अनंत सरमाया था ….
अपने परायों की कुछ खट्टी मिठ्ठी रंजिशे कुछ प्यार था …
अनकहे अधलिखे कुछ लफ्ज़ों का शिकवा था ..
खुद के लिए न जो जिए कभी उन पलों की शिकायत थी ..
नहीं अपनाया जिन राहों को उनकी भी कहीं चुभन थी …
चले ही नहीं जिन राहों पर, उस सफर की पैरों में थकन थी ..
इन सब को चुनकर जो गीत बुना …
वो गीत नहीं ….
मन के मेरे किसी कोने में ही छिपी कोई झंकार, कोई सरगम थी …
मुझको ही मुझसे मिलाने वाले कुछ लफ्ज़ों की साज़िश थी …
लिखूंगी इक दिन फिर कोई गीत ….
जो नहीं होगा शायद ..
मेरी कलम और लफ्ज़ों की साज़िश का शिकार फिर एक बार ……….
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