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रामचरितमानस ..समन्वय का सिधु ….आज के सन्दर्भ में .. साहित्यिक अलोचना (कांटेस्ट )

कुछ कही कुछ अनकही
कुछ कही कुछ अनकही
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रोशनी से नम अाँखे,
तीरगी से तर चेहरे,
दूसरोँ पर हँसते हैं,
खुद से बेखबर चेहरे,
रेँगते हैँ सन्नाटे अारिजे -शिकस्ता पर,
अपने अाप से खफा यह खण्डहर खण्डहर चेहरे,
लहर लहर उम्मीदेँ,मौज मौज मायूसी,
डूबते उतराते हैँ बात बात पर चेहरे ,
बेनमक तो थे पर इस कदर न थे,
जैसे कैद काटकर निकले होँ ये चेहरे ,
किस उम्मीद पर अपने अाप को देखे ,
अाइने तो मिल जाये दोस्तोँ,
मगर चेहरे ??

इन पँक्तियोँ को पढ़ कर एेसा अनुभव होता है मानो हम अपने अासपास के माहौल की एक जीती जागती तस्वीर देख रहेँ होँ।हर दिन सुबह शाम यही सब सुनना पढ़ना जैसे हमारी नियति ही बन गई हो ।
पिछले कुछ दिनोँ से समाचार पत्रोँ की सर्खिया होँ या टी वी पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम ,, इन सभी से इतना मन उब गया कि अपनी पुरानी कापी किताबोँ को खोल कर समय बिताने का फैसला किया ।सोचा चलो यादोँ की गलियारोँ मेँ ही घूम कर देखा जाये शायद मन की निराशा कुछ कम हो जाये ।अौर यकीन मानिये उम्मीद से कुछ ज्यादा ही मिला अपने उस पुराने खजाने मेँ। एक लेख जो मैँने स्कूल या शायद कॉलेज के दिनोँ किसी प्रतियोगिता के लिये लिखा होगा उसे पढ़कर ऐसा लगा कि अाज के समय में भी इस निबंध मेँ लिखी हर बात कितनी खरी है अौर हमारे समाज मेँ अाज जो बिखराव अा गया है उसका कुछ समाधान इसमेँ लिखी बातोँ मेँ निहित है।यही सोच कर यह लेख अाप सबके साथ साझा करने की इच्छा को रोक नहीँ पाई।अाशा है कि निम्न लेख की अन्तिम पन्क्तियोँ तक अाते अाते अाप मुझसे सहमत हो पायेँ।
गाधँी जी का एक कथन है

“” पुस्तकोँ का मूल्य रत्नों से भी अधिक है क्योँकि रत्न केवल बाहरी चमक दमक दिखाते हैँ जबकि पुस्तकेँ अतँःकरण को उज्जवल करती है।”
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गाँधी जी का मतलब शायद उन पुस्तकोँ से है जो मानव को सन्मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित करती हैँ।तथा मानव कल्याण की भावना को प्रशस्त करती है।गोस्वामी तुलसीदास दव्ारा रचित रामचरित मानस ,एेसा ही महान ग्रन्थ है। अौर इसका भारत मेँ वही स्थान है जो यूरोप मेँ बाइबल का है।

आधुनिक धर्म अौर संस्कृति पर इस महाकाव्य की पैठ बहूत गहरी है।यह एक एेसा ग्रन्थ है जो यद्यपि अाज से ५०० साल पहले लिखा गया था पर अाज भी समाज का पथ प्रदर्शन कर रहा है ।अौर जिसने उस मध्ययुगीन भारत के मुमुर्ष तथा जर्जर शरीर मेँ अपार शक्ति का एेसा संचार किया कि समय के थपेड़ों को खाकर भी फिर कभी वह विचलित नहीँ हुअा ।
पाश्चात्य मार्क्सवादी दर्शन जहाँ द्वंदात्मकता मेँ समस्याअोँ का हल खोजता है वहाँ भारतीय दर्शन भिन्न भिन्न विरोधी त्तत्वोँ के सुन्दर समन्वय मेँ हल खोजते हैँ ।यही हमारी मौलिकता है अौर यही हमारी विशेषता भी है।रामचरितमानस भारतीय संस्कृति का एक उज्ज्वल प्रतीक है जिसमेँ महाकवि तुलसीदास ने भारत देश की विभिन्न विचार पद्दतियोँ ,विरोधी संस्कृतियों अौर विरोधी जातियोँ में समन्वय स्थापित करके कविता के रुप मेँ समन्वयवाद का एक विराट अादर्श प्रस्तुत किया है।वस्तुतः यह सारा काव्य ही समन्वय की चेष्टा है।
समन्वय का मतलब है कुछ झुकना अौर कुछ दूसरोँ को झकने के लिये बाध्य करना ।अौर एेसा करने की अदभुत क्षमता इस महाकाव्य के रचनाकार मेँ थी।जिन्होने अपने काव्य मेँ
लोक अौर शास्त्र का समन्वय —
गृहस्थ अौर वैराग्य का समन्वय—
पांडित्य अौर अपांडित्य का समन्वय—-
भक्ति अौर ज्ञान का समन्वय—–
भाषा अौर संस्कृति का समन्वय — –
निर्गुण और सगुण का समन्वय एक बहुत ही सु्न्दर रुप मेँ दिखाया है।
तात्प्र्य यह है कि रामचरितमानस अारम्भ से अन्त तक समन्वय का सुन्दर उदाहरण है जो एक बहुत ही व्यापक दृष्टिकोण को प्रतिबिंबित करता है।इसमेँ न केवल राम की उपासना है बल्कि शिव गणेश अादि की स्तुति भी की गई है।तुलसीदास ने सेतुबँध के अवसर पर पर राम दव्ारा शिव की पूजा करवाई है।अौर अनेक स्थलों पर राम को शिव का अौर शिव को राम का उपासक दिखाया है।
धार्मिक अौर सामाजिक क्षेत्र मेँ एक अदभुत समन्वयता है इस काव्य मेँ।अौर इसी महाकाव्य दव्ारा मध्ययूगीन भारत की सम्पूर्ण चेतना को एक काव्यमयी वाणी मिली है।इससे पहले दार्शनिक विचारधाराअोँ अौर संप्रदायों का परस्पर विरोध केवल ,सैदान्तिक नहीँ था बल्कि कई सामाजिक परिस्थतियाँ भी थी।तुलसीदास जी ने इन दोनो का निदान खोजा ।अौर सगुण, निर्गुण,ज्ञान ,कर्म भक्ति अादि का एक उचित स्थान निर्धारित किया।
भक्ति मात्र एक अभीष्ट है।भक्ति का साधन ज्ञान है अौर ज्ञान की प्राप्ति के लिये हम जप ,तप, व्रत अौर अध्ययन करते है।इनका रुप अलग हो सकता है,नाम अलग हो सकता है पर किसी भी धर्म मेँ दूसरे धर्म का अपमान नहीँ होना चाहिये ।राम चरितमानस मेँ द्व्तवाद ,अद्व्त्वाद अौर अपने समय के सभी सिद्दान्तोँ का महत्व दिखाते हुये अनोखा समन्वय प्रस्तुत किया है।
उन्होने इस काव्य के दव्ारा एक अनोखा दार्शनिक सामंजस्य भी स्थापित किया है।लोक मर्यादा -वर्ण व्यवस्था,अौर सदाचार की व्यवस्था सबका उचित सम्मान रखा है।सामाजिक मर्यादाअोँ की वर्ण व्यवस्था के द्वारा ही रक्षा की जा सकती है।

इस विचार पर वेदोँ की गहरी छाप है जो हमारी संस्कृति का मूल है।अाज भी हम इस व्यवस्था को किसी न किसी रुप मेँ देख सकते है।
इस महाकाव्य मेँ तुलसीदास जी ने लोकमार्यादा ,वर्ण व्यवस्था,एवम् सदाचार का पूर्णरुप से ख्याल रखा है।एक अादर्श समाज की कल्पना उनके रामराज्य मेँ देखी जा सकती है।जिसका अाधार एक मर्यादित समाज है ना कि अमर्यादित व्यवहार।कोई भी समाज ,सदाचार के बल पर ही अागे बढ सकता है ।सांस्कृतिक मर्यादाअोँ का अतिक्रमण करने वाले समाज का नाश अवश्यम्भावी है।व्यक्ति अौर परिवार अादर्श समाज की अाधारशिला हैँ।राजा अौर प्रजा ,गुरु अौर शिष्य,माता अौर पुत्र।पिता अौर पुत्री अादि सभी रिश्तोँ का अति सुन्दर वर्णन ही इस महाकाव्य की विशेषता है।
जहाँ भी किसी ने मर्यादा का उल्लँघन किया उसे दण्डित अवश्य किया गया है।रावण अौर शूपर्णखा इसके ज्वलन्त उदाहरण है।राम को मर्यादापुरुषोतम के रुप मेँ हम अाज भी अपने मनोँ मेँ बसाये हुए हैं .
क्यों ?
क्योँकि उनके चरित्र मेँ शील अौर सौन्दर्य का समन्वय है अौर वे कभी भी मर्यादाअो का उल्लँघन नहीँ करते ।
इस काव्य मेँ गीता का अनासक्ति योग ,—बौद्धोँ का मध्य मार्ग —अार्य समाज का अार्य सँगठन –अौर गाँधीवाद के सत्य अौर अहिँसा सभी की छाप है ।साथ ही मुसलमानोँ का मानव बन्धुतव तथा इसाइयोँ की करुणा को खुले रुप मेँ दिखाया गया है।इसी अद्भुत समन्वय की भावना के कारण ही इस काव्य मेँ से वह दिव्य अालोक फूटा जिसने सारे भारत को राममय कर दिया ।अौर जो हमारी चेतनाओ मेँ इतना गहरे उतर गया कि अाज भी उसका प्रभाव साफ देखने को मिलता है।रामत्व की रावणत्व पर विजय की कल्पना केवल भारतीय समाज के लिये ही नही बल्कि सारे िवश्व समाज के लिये पथ प्रदर्शक है।अौर यही कारण है कि यद्यपि यह काव्य स्वान्तःसुखाय लिखा गया था परन्तु सर्वहिताय सिद्ध हुआ …
धर्म ,दर्शन ,साहित्य ,रस अलंकार ,छन्द अादि सभी का जितना सुन्दर समन्यव रामचरितमानस मेँ मिलता है वैसा कदाचित अौर कहीँ नहीँ मिलता ।भाषा की सरसता अौर मधुरता के कारण ही अाज ५०० वर्षोँ बाद भी रामचरितमानस की चौपाईयाँ जन जन की जुबान पर हैँ जहाँ सभी प्रचलित प्रणालियों का कवि ने उपयोग किया है वहाँ भाषा अौर सौष्ठव को भी बनाये रखा है है।मानव प्रकृति के विविध रुपोँ को जितनी गहराई से गोस्वामी जी ने देखा उतना रागात्मक सामंजस्य अौर कहीँ भी उपलब्ध नहीँ ।सभी रस ,छन्द ,अलंकारों का इतना सुन्दर उपयोग हुअा है कि मन मुदित हो कर रह जाता है।श्रृंगार रस,वियोग रस, वीर रस रौद्र रस सभी का यथाचित उपयोग किया गया है ।शान्त रस तो सारे महाकाव्य मेँ ही छाया हुअा है.
रामचरितमानस मेँ कोमल अौर कठोर भावनाओं का जितना सुन्दर वर्णन हुअा है वह अदभ्ुत है।

किसी अालोचक विद्वान ने क्या खुब कहा है——–“रामचरितमानस के रचियता ने सब अोर से समन्वयता की रक्षा करते हुये एक अद्वितीय काव्य की सृष्टि की है।जो अब तक सारे भारत का मार्ग दर्शक रहा है अौर उस दिन भी रहेगा जिस दिन एक नये भारत का जन्म हो गया होगा ।

नये भारत के जन्म का तो पता नहीं कब होगा परन्तु आज के भारत में व्यक्तिगत ,सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर मूल्यों का जो पतन हो रहा है वह बहुत ही कष्टकर है ।
हर दिन गिरावट की और बढ़ रहे इस हमारे देश की ऐसी स्थति से मुक्ति पाने के सभी उपाय ,साधन और सुझाव हमारे पास ही हैं ।इन अमर रचनाओं में जिन्हें अपना कर हम एक सुंदर समाज का निर्माण कर सकते है ।

जरूरत है तो बिखरे हुए अहसासों को समेटने की ,नित गिरते मूल्यों को सम्भालने की ,एक दूसरे के सम्मान को बनाये रखने की ,
और सबसे अधिक आवश्यकता है अपने अंदर झांककर देखने की ।
जिस दिन हम यह समझ जायेंगें उसी दिन हमारे नये भारत का जन्म होगा ।
एेसा मेरा विचार है ……

आमीन…..

सरोज सिंह .

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