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रात मैंने खिड़की खोली ,,,,,,,,,,
और ,,,,,,,,,
कहा चाँद से,,,,,,,,,
चेहरे पे मेरे चांदनी जऱा बिखरा दे ,,,,,,,,,,
अपनी उजली किरणों से मन मेरा महका दे ,,,,,,,
कहा मैंने चाँद से यह भी ,,,,,,,,,
कि ,,,,,,,,
कर दिए हैं बंद मैंने ,,,,,,,,,
आज से दरवाज़े अल्फाजों के ,,,,,,,,,
और ,,,,,,,,,,,,,
खोल दी हैं वो खिड़कियाँ सारी,,,,
बोलती हैं खामोशियाँ जहां ,,,,,,,,,
मुस्कानें हैं जहाँ जुबां जज्बातों की ,,,,,,,,,,,,,
हर अहसास की रूह आजाद है जहां ,,,,,,,,,
इसलिए ऐ चाँद ,,,,,,,,,,,
अब से तू मेरे घर न आना,,,,,,,,
उन दरवाजों से ,,,,,,,,,
आना तो बस इस खिड़की से ,,,,,,,,,
जो खुली रखी है मैंने तेरे लिए ,,,,,,,
और ,,,,,,,,,,,,,,
तेरी शफ्फाक़ चांदनी के लिए ,,,,,,,,,
जो जब आये इधर,,,,,,,,,,
तो,,,,,,,,,,,
हर ज़र्रा मेरे घर का हो उठे रोशन ,,,,,,,,,
तो …………
ऐ चाँद अब से तू मेरे घर आना तो ,,,,,,,,
बस इसी खिड़की से आना ,,,,,,,,,,,,,,
इसी खिड़की से आना ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
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