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सोचा है कि ……..(कविता )contest ( द्वितीय पुरस्कार )

कुछ कही कुछ अनकही
कुछ कही कुछ अनकही
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डुबोया ना करें वो

सोचा है कि
इंद्रधनुष के रंग बन
दूर क्षितिज तक
मैं आज बिखर जाऊं
यहाँ से वहाँ तक
दूर तक फैले नीले आसमां पर
सतरंगी चूनर बन लहराऊँ
सोचा है कि
सर्दियों की चटख चमकीली
धूप बन निखर जाऊं
यहाँ वहाँ
बाग़ बगीचों में
घर आंगन में हर कहीं
सुनहरी किरणें बिखराऊं
सोचा है कि
सावन की बरखा बन
मैं आज बरस जाऊं
यहाँ वहाँ
घर आँगन, खेतों में,
गलियों में हर कहीं
टिपटिप बरसती बूदों की
रिमझिम पर
गीत कोई गुनगुनाऊँ
सोचा है कि
मौसम बहारों का बन
गुलशन में
फूल हर रंग के खिलाऊँ
यहाँ से वहाँ तक
जो भी मिले राहों में
पता बहारों का
उन सब को बताती जाऊं
सोचा है कि
पूनम का चाँद बन
चांदनी रातों सी
मैं खिल जाऊं
यहाँ वहाँ
हर कहीं धरती से अंबर तक
किरणें हजारों
हर अँधेरे कोने को बांटती जाऊं .
सोचा है कि
समंदर बन
हर लहर को
किनारे पर बुलाऊँ
यहाँ वहाँ हर कहीं
बीच समंदर में
डुबोया न करें
वो कश्तियों को
यूँ ही बेसबब
बात यह
उन सब को मैं समझाती जाऊं
सोचा है कि
उजाले की
नन्ही सी लकीर बन
बंद हैं जो किवाड़
उन की दरारों में भी
जरा मैं झाँक आऊं
वो जो उदास और तन्हा हैं
डोर उनकी भी तो खुशियों और
उजालों से जरा मैं बांध आऊं
सोचा है कि
कोरे पन्नों पर अल्फ़ाज़ों से
रिश्ते कुछ नये बनाऊं
यहाँ वहाँ
जाने कहाँ कहाँ
बिखरे हुए अपने ख्यालों को भी
अब तो किसी
अंजाम तक मैं पहुँचाऊँ

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