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जब मुझ से गिलास टूटा …….. संस्मरण (कांटेस्ट)

कुछ कही कुछ अनकही
कुछ कही कुछ अनकही
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आप सोच रहें होंगे यह कैसा शीर्षक है ? जी हाँ बिलकुल यही सवाल हम सब के मन में भी आया था कि सर ने यह कैसा विषय दे दिया निबंध लिखने के लिए ?ऐसे बेतुके विषय पर क्या लिखेंगे ?और यह भी पता था कि विषय बदलने की प्रार्थना करना भी बेकार है ।सो मन मार कर शब्दों की खोज में लग गए हम सब नवीं ‘बी ‘ कक्षा के दुखी विद्यार्थी .
और फिर जो कुछ हुआ वो मेरे जीवन में एक नया मोड़ ले कर आया जिसने मुझे मेरी ही अपनी उस प्रतिभा से परिचय कराया जिसका मुझे जरा भी आभास नहीं था ।
असल में हुआ यूँ कि हमारे हिंदी के जो अध्यापक थे वे थोड़े सख्त किस्म के थे और हम सब उनसे काफी डरते भी थे (यह तब की बात है जब अध्यापकों से डरना आम बात थी ) और उनका दिया हुआ काम चाहे जो भी हो हमें करना ही था। खैर बेतुके शीर्षक के साथ दो दो हाथ तो करने ही थे सो सर झुका कर लिखना शुरू किया ।
आरम्भ में तो कुछ समझ में नहीं आया लेकिन फिर न जाने कैसे और क्या हुआ कि लेखनी ने चलना शुरू किया तो फिर तभी रुकी जब पीरियड समाप्त होने की घंटी बजी ।शर्मा सर हमारे ने हमारे पेपर जमा किये और लेकर चले गए । अगले पीरियड की फ़िक्र में हम सब कुछ भूल गये और दो तीन दिन तक भूले ही रहे ।
फिर एक दिन हिंदी के खतरनाक पीरियड में शर्मा सर दाखिल हुए और उनके हाथ में उन्ही पेपर्स का बंडल था जिसे हम कभी देखना नही चाहते थे ।
अपनी कुर्सी पर बैठ कर सारी कक्षा का जायजा लेने के बाद उन्होंने जो एक नाम पुकारा और वो नाम मेरा था .।मुझे वो डरावना क्षण आजतक याद है जब मैं डर के मारे पसीना पसीना हो रही थी ।क्योंकि मैं उस कक्षा में अभी नयी ही आई थी इसलिए सर मेरा नाम नहीं जानते थे (हम फौजी परिवारों के बच्चे हर दो ढाई वर्ष में नये स्कूल में जब तक अपनी पहचान बना पाते थे अच्छा खासा समय बीत जाता था )और मेरा अपनी सीट से हिलने का कोई इरादा था ही नहीं तभी एक बार फिर मेरा नाम पुकारा गया ।और कोई चारा न देख अपनी बेइज्जती के लिए खुद को मन ही मन तैयार करते हुए मैं खड़ी हो गयी ।
तुम्हारा ही नाम सरोज हैं ?यहाँ आओ।
अपनी सीट की तरफ इशारा करते हुए सर ने कहा ।
उफ़ ! कितना डरावना पल था वो !!
यह तुम्हारा पेपर है ?
अपना नाम पढ़ा और गर्दन हिला दी ।बोलने की हिम्मत तो बची नही थी ।
यह लो और जो भी लिखा है उसे सारी क्लास को पढ़कर सुनाओ।
नहीं सर ,प्लीज ।
पहले पढो तो सही डरने की बात नही है तुमने बहुत अच्छा निबन्ध लिखा है। मैं चाहता हूँ सब सुने ,चलो पढो ।
मरता क्या न करता ,इस मुहावरे की सच्चाई उस दिन अच्छी तरह समझ में आई ।
अपने पेपर लिए और पढना शुरू कर दिया ।
पढ़ते पढ़ते मुझे बहुत अटपटा लग रहा था मैंने गिलास टूटने को जिंदगी का फलसफा बना कर पता नही क्या क्या लिख मारा था ऐसे सबके सामने पढना पड़ेगा यह किसे पता था ?
लेख खत्म होने पर तालियाँ बजवाई सर ने और जो कहा वो अविश्वश्नीय था ।उन्होंने कहा ” तुमने इतना सुंदर लेख लिखा है वो भी एक ऐसे विषय पर जो बिलकुल बेतुका था और खुद मैं इस पर शायद दो चार लाइनों से अधिक नही लिख पाता ।पर तुमने तो कमाल ही कर दिया जीवन की क्षण भंगुरता को कितनी आसानी से इतने सुंदर शब्दों में कागज पर उतार दिया तुमने दिया कल तुम इस लेख को असेंबली में पढ़ोगी “।
बाकी सब तो ठीक था पर वो आखरी पंक्ति मुझे पसंद नही आई ।मैंने बहुत आनाकानी की पर मेरी एक न चली और उन्होंने इसे एक हुक्म की तरह मुझे मानने को कहा ।

और अगले दिन बहुत संकोच के साथ असेम्वली मेँ वो लेख पढ़ा और जैसे ही मैंने समाप्त किया पूरा स्कूल तालियों की आवाज से गूँज उठा ।
सारे स्टाफ मेंबर्स ने दिल खोलकर मेरी तारीफ की ।प्रिंसिपल सर ने मेरी पीठ थपथपाई और मुझे उसी वक्त उसी असेंबली में स्कूल की “हिंदी साहित्य सभा ” की अध्यक्षा घोषित कर दिया जो कुछ दिनों बाद एक समारोह में के रूप में भाषणों और मालाओं के साथ सम्पन्न हुआ ।(यह बहुत ही अप्रत्याशित घटना थी क्योंकि मैं विज्ञान की छात्रा थी )
यह तो दिन की शुरुआत भर थी उसके बाद तो हर पीरियड में साथी छात्रों और सभी शिक्षकों ने कुछ न कुछ कहकर मेरा हौसला बढ़ाया/ घटाया । इस कड़ी में मैं अपने फिजिक्स के सर की बात को कभी नहीं भूल पाती हूँ जब उन्होंने मुझे फिजिक्स की क्लास में यह कहकर बुलाया ” ऐ लडकी पतली सी इधर आओ ( तब मैं बहुत हलके फुल्के शरीर की मालकिन होति थी)तुम साइंस पढने वाली लडकी यह सब लिखने -विखने में समय बर्बाद मत करो अपनी पढाई पर ध्यान दो । जवाब में ” यैस सर ” कहने के सिवाय कोई चारा तो था नहीं सो यही कहकर बात खत्म की ।
कमोबेश ऐसी ही कुछ बातें चलती रही ।कुछ दिलचस्प टिपण्णियाँ सहपाठी छात्रों से मिलनी स्वाभाविक थी। कुल मिला कर शाम होते होते वो दिन एक कभी न भूलने वाले दिन के रूप में यादों के कोष में जमा हो गया ।
यह सब अच्छा तो लग रहा था पर मन में एक डर भी था कि इस अकस्मात मिली पहचान और योग्यता पर खरी भी उतर सकूंगी या नहीं अौर इसी चिंता के साथ दिन समाप्त हो गया ।
इस घटना के बाद बिताये दो -ढाई साल मेरे जीवन के सबसे अच्छे साल थे जब मैंने बहुत कुछ सीखा ।अपनी पढाई के साथ साथ स्कूल में होने वाले सभी प्रतियोगिताओं में भाग लिया फिर चाहे वो भाषण ।वाद विवाद हो ,कविता पाठ हो या कुछ और हो ।हिंदी साहित्य सभा का अध्यक्ष बनाने के बाद मुझे स्कूल मैगज़ीन के हिंदी विभाग का छात्र सम्पादक का सम्मान भी मिला ।लेकिन एक और मजेदार घटना बताये बिना यह लेख पूरा नही होगा ।
स्कूल का वार्षिक उत्सव पास आ रहा था और एक एकांकी का आयोजन किया जाना था ।एकांकी का नाम था ‘परशुराम पराजय ‘ जिसमें लक्ष्मण परशुराम के धनुष को तोड़ते है राम लक्ष्मण आदि की तलाश हो रही थी जोर शोर से ।मेरा नंबर भी आया और कुछ डायलाग बोलने के लिए दिए गये ।परफॉरमेंस को देखते हुए लक्ष्मण का रोल मेरे हिस्से आया ।
वार्षिक उत्सव हुआ ।स्टेज पर लक्ष्मण की पीठ पीछे बंधे तरकश की रस्सी टूट गयी । किसी तरह एकांकी पूरा हुआ ।सब को बहुत पसंद आया ।यहाँ तक कि सब मूझे लक्ष्मण के नाम से बुलाने लगे ।प्रिंसिपल सर भी।
ऐसा सुहाना सफर था वो सेंट्रल स्कूल नम्बर -२ आगरा कैन्ट का ।
इस लेख को मैं अपने उस समय के अपने अध्यापकों को बहुत सम्मान और श्रद्धा के साथ समर्पित करती हूँ । जिन्होंने मूझे एक लेखिका बनने की राह दिखाई ।
विज्ञान की अध्यापिका और एक आर्मी ऑफिसर की पत्नी होने के कारण फ्री लांस लेखन कार्य ही संभव हो पाया । कुछ बाल पत्रिकाओं (बाल हंस आदि )में तथा कुछ समाचार पत्रों में भी लिखा जैसे दैनिक भास्कर ,हरि भूमि , ट्रिब्यून एवम हिंदुस्तान टाइम्स आदि ।एक कविता संग्रह और एक किताब जो सैन्य जीवन के संस्मरणों पर आधारित है बस छपने के लिए तैयार है ।
मेरे सभी अध्यापकों को शत शत नमन के साथ
रचियता ——–सरोज सिंह

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