कुछ कही कुछ अनकही
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यूँ ही बेवजह दिया कभी खुद को कभी जमाने को इल्जाम /
सच तो यह हैं कि हर नाकामी में मेरी , मेरा ही तो कसूर था/*
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ऐसे ही कभी कभी हुआ जब भ्रम मंजिल पाने का /
सच तो यह था कि मंजिल से अभी मैं बहुत दूर था/*
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साथ था कोई मेरे हरदम , हर गम हर ख़ुशी में समझ सका न मैं राज यह /
सच तो यह है कि समाया हुआ हर रंग ,हर शै में उसका ही नूर था/*
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राहें तो राहें हैं , मिले न गर मंजिल तो उनका क्या कसूर /
सच तो यह है कि किस्मत को भी हमारी यही मंजूर था//
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