कुछ कही कुछ अनकही
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है अल्फ़ाज़ों की बाज़ीगरी
(एक)
माना की घिरा है
सारा जहाँ उलझनोँ मेँ,
परेशान हर शख्स है।
मुहब्बत ही है मरहम ,
दवा सब उलझनों की
समझ ले जिस पल राज यह इनसान
सवँर जाये यह सारी जमीँ ,
निखर जाये यह सारा अास्माँ,,,,,,
दो)
चाहोँ के पर ,नावोँ के बन्धन खोल अाज।
चाहो के परोँ पर हो कर सवार ।।
छोड कर दुनिया की कांटो भरी डगर ।
जाना है वहाँ बस फूलोँ का हो जहाँ बसर।
(तीन)
हैं अल्फाजोँ की बाजीगरी ,
उलझनेँ यह सारे जहाँ की।
न देता गर इन्साँ तकल्लुफ इतना ,
बेमुरव्वत से इन अल्फाजोँ को ।
होते हरगिज न यह झगडे सरहदोँ के ,
न होते टुकडे यह दिलोँ के
राज यह गर जान लेता इन्सान
के मुहब्बत की जुबाँ नहीँ होती,
अल्फाजोँ का कोइ मजहब नही होता ,
तो इस खुबसूरत दुनिया का यह हश्र ना होता ,
यह हश्र ना होता ,,,
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