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खुद को खो कर खुद को पाया मैंने ……….

कुछ कही कुछ अनकही
कुछ कही कुछ अनकही
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खुद को खो कर खुद को पाया मैंने आज
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जो मन में है कह देना खुल के /
खाली कर देना खुद को /
और ……….
फिर ख़ामोशी में खो जाना /
कुदरत का कोई खेल हो जैसे /
जब बहती है हवा होती है बस केवल हवा /
चंचल ,मस्त ,सर्द ,नम या कभी खुश्क सी बस हवा /
बरसती है जब बरखा केवल बरखा ही होती है/
बूंदों का एक अम्बार लिए /
बरसती है कभी छम -छम कर /
कभी रुक रुक कर /
बादल बरस गुजर जाते है /
जब /
तब /
शांत सा सब कुछ हो जाता है /
ठहरे हुए से धरा, गगन /
ठहरे हुए से पत्ते शाखों पर /
धुला हुआ नीला आकाश /
बस धुला हुआ सा उजला आकाश /
दूर क्षितिज तक /
बाकी कुछ भी नही /
कही कुछ भी तो नहीं /
जो कहना था /
कह दिया /
जो सुनना था सुन लिया /
खुद को खाली कर खुद को पा लिया हो जैसे /
गीत /
गजल/
कहानी/
कुछ जो मन की तहों में छिपा था गहरे कहीं /
कह डाला /
बस कह ही डाला /
लिखा कुछ पन्नों पर /
फिर काटा ,फिर लिखा /
जैसे उमड़ रहा था तूफ़ान कोई मन में /
गीत कोई बन बरस गया /
शब्दों की सुहानी बौछार बन बिखर गया /
बादल था कोई भरा भरा जल की बूंदों से /
तन मन पर छिटक गया /
अब बस शांत है आकाश /
शांत है धरा /
मन भी है अब शांत /
बरखा की बूंदों से धुला उजला आकाश सा /
ऐसे जैसे कि/
खुद को खो कर खुद को पा लिया मैंने आज /
हाँ शायद ,खुद को खो कर ही तो पाया है खुद को मैंने आज …

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